Seven Days Course



  • आत्मा एक अतिसूक्ष्म दिव्य ज्योति बिंदुस्वरुप है इसलिए व्यक्ति जब शरीर छोड़ता है तो दीपक जलाते हैं अर्थात शरीर में स्थित चैतन्य ज्योति के यादगार स्वरूप ज्योति जगाते हैं । तभी लोग कहते वह चैतन्य ज्योति चली गई ( The light of the life has gone ) . आत्मा एक चमकते हुए सितारे के समान है । एक प्रकाश पुंज है ।
  • दुनिया में आत्मा के शरीर में निवास के विषय में कई प्रकार की मान्यताएं हैं । कई लोग यह मानते हैं कि आत्मा हृदय में रहती है । लेकिन आज जब ऑपरेशन करके हृदय प्रत्यारोपण ( heart transplantation ) किया जाता है तो सवाल उठता है कि उस वक्त आत्मा कहां जाएगी ?
  • कई कहते हैं कि आत्मा सारे शरीर में भ्रमण करती है । अब एक ही व्यक्ति, एक ही समय में सुन रहा है, देख भी रहा है, बोल भी रहा है, हाथ भी हिला रहा है, चल भी रहा है, उस वक्त आत्मा कहां जाएगी ?स्पष्ट है कि आत्मा का एक नियत स्थान होना चाहिये। जिस तरह गाड़ी में ड्राइवर का एक नियत स्थान है जहां बैठकर वह सारी गाड़ी को कंट्रोल करता है । ऐसा नहीं कि रिवर्स करना है तो पीछे दौड़ेगा, आगे चलाना है तो आगे जाएगा । नहीं । गाड़ी के सारे कंट्रोल ( controls ) एक स्थान पर होते हैं, जहां से वह कंट्रोल करता है । ठीक इसी प्रकार मस्तिष्क शरीर को नियंत्रित करने वाला है, आत्मा मस्तिष्क एवं स्नायु तंत्र के द्वारा शरीर की सभी कर्मेंद्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों पर नियंत्रण रखती है । मेडिकल साइंस ( Medical Science) के द्वारा भी यह प्रमाणित किया गया है कि हाइपोथैलेमस और पिट्यूटरी ग्लैंड के बीच( In between hypothalamus and pituitary gland ) में आत्मा निवास करती है । इसलिए व्यक्ति जब अपने भाग्य की बात करता है तभी भी वह अपना हाथ मस्तक पर फेरता है । भाग्य शरीर में नहीं है परंतु आत्मा भाग्य लेकर आती और लेकर जाती है । चूंकि आत्मा भृकुटि के पीछे बैठी है, लोग कपाल में भाग्य को दर्शाते हैं । भारत में तिलक भी भृकुटी के मध्य में लगाते हैं । वैसे जब महिलाएं तिलक लगाती हैं तो वह सौभाग्यवती की निशानी है, परंतु जब मंदिर में जाते हैं तो भाई और बहने दोनों ही तिलक लगाते हैं । भारत में एक बहुत सुंदर प्रथा है जब किसी धर्म स्थल पर जाते हैं तो चमड़े की चीज को बाहर उतार कर,फिर अंदर जाकर तिलक लगवाते हैं और हाथ जोड़कर नमन करते हैं । यह प्रथा चलती आई है लेकिन यह क्यों किया जाता है यह बात सामान्य व्यक्ति नहीं जानते । अब स्थूल चमड़े की चीज को तो बाहर उतार दिया लेकिन ये शरीर भी तो एक चमड़ा है जिसका मनुष्य अभिमान करता है । वास्तव में उतारना है अभिमान के चमड़े को । जिस चमड़े का अभिमान कर मनुष्य कहता है कि ‘मैं फलाना ‘,‘ मैं फलाना ‘इस देह के अभिमान ( body consciousness ) को बाहर उतारना होता है । फिर अंदर जाकर तिलक लगाने का अर्थ है कि स्वयं को आत्मा निश्चित करो कि “मैं” देह नहीं परंतु इस देह में विराजमान एक चैतन्यशक्ति आत्मा हूं । इस स्थिति में मन को स्थिर करके फिर भगवान की मूर्ति के सामने जाकर नमन करना चाहिए अर्थात आत्मभावमें स्थित होकर फिर भगवान के सामने अपनी भावनाओं को अर्पित करना चाहिए । जब इस शुद्ध भाव से भावनायें अर्पित की जाती हैं तो भगवान भी उसे स्वीकार करते हैं । अक्सर मंदिर में चंदन का तिलक लगाया जाता है । सवाल है कि चंदन का ही तिलक क्यों लगाया जाता है और वह एक छोटा सा बिंदु लगाते हैं । इसका कारण यह है कि आत्मा का स्वरूप अति सूक्ष्म बिंदु है । चंदन का रंग सुनहरा होता है, यह याद दिलाता है कि आत्मा का अनादि स्वरूप शुद्धऔर पवित्र है । चंदन लगाने से शीतलता महसूस होती है अर्थात आत्मा का स्वधर्म शांति है । चंदन की खुशबू चारों ओर फैलती है अर्थात आत्मा जब अपने असली सतोगुणी स्वरुप में स्थित होती है तब वह अपने गुणों की खुशबू सारे संसार में फैलाती है इसलिए चंदन का तिलक लगाया जाता है ।
  • अपने सारे दिन की बातचीत में मनुष्य प्रतिदिन न जाने कितनी बार ‘ मैं ’ शब्द का प्रयोग करता है | परन्तु यह एक आश्चर्य की बात है कि प्रतिदिन ‘ मैं ’ और ‘ मेरा ’ शब्द का अनेकानेक बार प्रयोग करने पर भी मनुष्य यथार्थ रूप में यह नहीं जानता कि ‘ मैं ’ कहने वाले सत्ता का स्वरूप क्या है, अर्थात ‘ मैं’ शब्द जिस वस्तु का सूचक है, वह क्या है ? आज मनुष्य ने साइंस द्वारा बड़ी-बड़ी शक्तिशाली चीजें तो बना डाली है, उसने संसार की अनेक पहेलियों का उत्तर भी जान लिया है और वह अन्य अनेक जटिल समस्याओं का हल ढूंढ निकलने में खूब लगा हुआ है, परन्तु ‘ मैं ’ कहने वाला कौन है, इसके बारे में वह सत्यता को नहीं जानता अर्थात वह स्वयं को नहीं पहचानता |


हम एक चैतन्य आत्मा है। जब हम अपने असली स्वरूप को भूल, अपने को शरीर देखते वा समझते है, तो इसे ही देह अभिमान कहा जाता है।  वास्तव मे, यह देह का भान ही सभी विकार और दुख का कारण है। देह के भान वाली आत्मा अपने को निर्बल महसूस करेगी, क्योंकि देह की शक्ति सीमित होती है, जैसे देह स्वयं भी सीमित है। तो अब परमात्मा कहते है - 'अपने को आत्मा-अभिमानी बनाओ, यह पुरुषार्थ करो। एक दूसरे को आत्मा देखो।'

जब हम आत्मा अभिमानी स्थिति मे थे, तो हम इस दुनिया के मालिक थे। आत्मा प्रकृति की मालिक अर्थात इस देह (शरीर) की मालिक थी।  जैसे एक रथी रथ का मालिक होता है। 

सभी मे दिव्य गुण रहते थे, क्योंकि शांति, आनंद, प्रेम और पवित्रता - यह आत्मा के निजी गुण है जो हमे परमपिता परमात्मा से मिले है।

तो जब हम आत्मा अभिमानी बने, तो सहज ही यह सभी गुण हम मे आ जाते है - जिससे हमारा जीवन मूल्यवान बनता है।  जो कहा जाता है - मनुष्य जीवन अति मूल्यवान जीवन है - यह अभी के समय के लिए गायन है l



जैसे किसी व्यक्ति का परिचय देते हैं वैसे ही आत्मा के परिचय में हमने 5 बातों को देखा कि

1. उस चैतन्य शक्ति का नाम है आत्मा। आत्मा कहो , रुह कहो , सोल ( Soul ) कहो, शक्ति कहो, या एनर्जी ( Energy ) कहो ।

2. उसका स्वरूप( Identity ) अति सूक्ष्म दिव्य ज्योति बिंदुस्वरुप है ।

3. उसकी योग्यताएं( Qualification ) सात गुण, ज्ञान, पवित्रता, प्रेम, शांति, आनंद और शक्ति ।

4. उसका अस्थायी पता ( temporary address ) है भृकुटी के मध्य और स्थायी पता ( permanent address ) है शांति धाम ।

5. वर्तमान कार्य( present occupation ) है कि इन सातों गुणों से स्वयं को संपन्न बनाकर अपने जीवन को जीना । यह है मानव जीवन जीने का उद्देश्य यही है ।





ईश्वर के विषय में अज्ञानता :
एक बार एक कार्टून देखा जिसमें एक व्यक्ति अखबार पढ़ रहा था । उसके हर कॉलम में ईश्वर के विषय में कुछ लिखा हुआ था ।
पहले कॉलम में लिखा था - प्रगति ईश्वर है ।
दूसरे कॉलम में लिखा था - आत्मा सो परमात्मा । हम सो ,सो हम ।
तीसरे कॉलम में लिखा था - ब्रह्म ईश्वर है ।
चौथे कॉलम में लिखा था - ईश्वर सर्वव्यापी है, कहाँ नहीं है? कण-कण में ईश्वर है ।
पांचवे कॉलम में लिखा था - परमात्मा निराकार है । ना नाम है, ना रूप है, ना आकार है ।
छठे कॉलम में लिखा था - भगवान तो साकार है। जितने भी इष्ट देवी देवता हैं वे सब ईश्वर के रूप हैं ।और नीचे बड़े अक्षरों में लिखा था - भगवान जैसा कुछ है ही नहीं । अगर भगवान है तो सबूत दो । जिस प्रकार विज्ञान ने हर बात का सबूत दिया है, ईश्वर के विषय में भी सबूत दो ।अब जो व्यक्ति यह समाचार पत्र पढ़ रहा था, सारे कॉलम पढ़ने के बाद उसने क्या निर्णय लिया होगा ?

 

सारी बातें पढ़ने के बाद मनुष्य इतना उलझ गया कि वह सोचने लगा कि सत्य किसको माने ? क्या ये सभी सत्य है? अथवा इन सब में से एक ही सत्य है ? या यह समझा जाए कि सत्य कुछ और है, जिसको इंसान ने अभी तक समझा ही नहीं है ? जितना ही सत्य को समझने का प्रयास किया गया उतना ही दिन प्रतिदिन वह सत्य से दूर ही होता गया । इस संदर्भ में मुझे एक कहानी याद आती है कि यह सूत इतना क्यों उलझ गया :-

एक बार पांच सूरदास थे, उन्हें कहा गया आप हाथीघर में जाकर देखो हाथी कैसा है ? थे तो नेत्रहीन, उन्हें हाथीघर में ले जाया गया और जिसके हाथ में जो आया उन्होंने हाथी का वैसा ही वर्णन कर दिया । एक ने पैर पकड़े तो कहा, हाथी खंबे जैसा है । दूसरे ने पीठ पकड़ी तो कहा, हाथी दीवार जैसा है । तीसरे ने पूँछ पकड़ी तो कहा, हाथी रस्सी जैसा है । चौथे ने सूंड पकड़ी तो कहा, हाथी साँप जैसा है । और पांचवे ने कान पकड़े तो कहा, हाथी पंखे जैसा है । अब आखिर हाथी कैसा होता है ? क्या ये पाँचों ही सत्य है? या पाँच में से एक सत्य है ? देखने वाला इंसान तो यही कहेगा ना की हाथी, इन पांचों ने जो वर्णन किया उससे भिन्न है । इस कहानी को थोड़ा आगे बढ़ाते हैं कि मान लो उन पांचो सूरदासों को कहा जाये कि एक छठा सूरदास दूर बैठा है उसको जाकर बताना है हाथी कैसा होता है ? वे पाँचो सूरदास एक-एक करके अपनी महसूस की हुई बात उस छठे सूरदास को सुनाते हैं, सारी बातें सुनने के बाद वह छठा सूरदास क्या समझ सकेगा कि हाथी कैसा है? वह कितना मूँझ जायेगा और अगर उसको एक सातवें सूरदास को सुनी हुई बातों को सुनाना हो कि हाथी कैसा है तो वह हाथी के विषय में क्या वर्णन करेगा और वह सातवां सूरदास तो शायद कुछ भी समझेगा नहीं और यही कहेगा कि ऐसा कोई प्राणी होता ही नहीं ।

इसी तरह आज मानव भी जब भगवान के मंदिर में जाते हैं तो यही गीत गाते हैं नयनहीन को रहा दिखाओ प्रभुजी ........... या हम अंधों की लाठी बनो प्रभु ......... अर्थात ये दो नयन तो हैं फिर भी जब मनुष्य अपने आपको नयनहीन कहते हैं तो कौन-से नयन की बात करते हैं ? वास्तव में मनुष्य ज्ञान के दिव्य चक्षु की मांग करते हैं,ये दिव्य नेत्र ना होने के कारण आज हर व्यक्ति, सूरदास की तरह नयनहीन है । इस दिव्य चक्षु के बिना मानव भी ईश्वर के सही रूप को महसूस करने का प्रयत्न करते हैं । हो सकता है कि जो धर्मात्मा हो कर गये हैं उन्होंने जिसमें भावना रखी या जिससे कुछ प्राप्ति हुई, उसी को परमात्मा मान लिया । यह भी हो सकता है कि उन्होंने परमात्मा के कुछ गुणों को महसूस किया और उस आधार पर उन्होंने ईश्वर के बारे में लोगों को बताना शुरू कर दिया या अपनी-अपनी कल्पना के आधार पर उन्होंने ईश्वर के विषय में ज्ञान देना शुरू कर दिया । परंतु जिन मनुष्य को उन्होंने समझाना चाहा,वे भी दिव्य चक्षुविहीन थे इसलिए उन धर्मात्माओं की बातें वह कैसे समझ सकते थे । उन्होंने धीरे-धीरे अपने समय के बच्चों को समझाने का प्रयत्न किया और इस तरह यह सूत उलझता ही गया । आज ईश्वर के बारे में इतने मत मतांतर हो गए हैं कि आज का मनुष्य यही कहने लगा कि आखिर सत्य क्या है ? क्या दुनिया के सभी मत-मतांतर सत्य है ? अथवा इनमे से कोई एकमत सत्य है ? या सत्य कुछ और ही है जिसको अभी तक हमने समझा ही नहीं है ? जब तक ज्ञान के दिव्य चक्षु नहीं खुलते हैं, तब तक हम ईश्वर के वास्तविक स्वरुप को समझ नहीं सकते। तभी तो भक्त गाते हैं ‘आज अंधेरे में है इंसान । ‘ सत्य की खोज में मानव भटक रहा है और जब वह थक कर हारने लगता है तब यही कह देता है कि ईश्वर है ही नहीं या कहेगा कि क्या आप सबूत दे सकते हो ? विज्ञान ने तो हर बात का सबूत दिया है, क्या आध्यात्मिक विज्ञान भी ईश्वर का सबूत दे सकता है ? यही कारण है कि धीरे-धीरे संसार में नास्तिकवाद बढ़ता जा रहा है क्योंकि उन्हें परमात्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान किसी ने दिया ही नहीं और न वे स्वयं ही परमात्मा को अनुभव कर पाए हैं ।

                         परमात्मा के स्वरुप को समझने की कसौटी की मुख्य पाँच बातें निम्नलिखित हैं :-

1. सर्व धर्म मान्य

सबसे पहली कसौटी यह है कि ईश्वर उसी को कहा जाना चाहिये जो सर्वधर्म मान्य हो। जिसको सभी धर्म वाले ईश्वर के रुप में स्वीकार करें कि यह सत्य है । ऐसा नहीं कि हिंदुओं का ‘भगवान‘ अलग है, मुसलमानों का ‘अल्लाह‘ अलग है, तो क्रिश्चियनों का ‘गॉड‘ अलग है, नहीं । ईश्वर एक है इसलिये जिसको सभी धर्म वालों ने ईश्वर के रुप में स्वीकार किया हो उसी को ही परम सत्य कहा जाना चाहिये ।

2. सर्वोच्च शक्ति

दूसरी कसौटी है कि परमात्मा एक सर्वोच्च शक्ति है । जिसके ऊपर और कोई शक्ति ना हो, जिस का कोई माता- पिता ना हो, कोई बंधु-गुरु-शिक्षक ना हो, लेकिन वह स्वयं ही सर्व के माता-पिता-बंधु-गुरु-शिक्षक-रक्षक हैं अर्थात जो इस दुनिया की सर्वोच्च शक्ति हो उसी को परमात्मा कहेंगे ।

3. सर्वोपरि

तीसरी कसौटी है कि परमात्मा सर्वोपरि हो - सब से परे हो । सर्वोपरि कहने का भाव यह है कि मनुष्य आत्माएं तो संसार के अनेक चक्रों में आती हैं जबकि परमात्मा इन सभी चक्रों से परे है अर्थात सभी चक्रों से ऊपर है । मनुष्य आत्माएँ जन्म और मृत्यु के चक्रों में, देह और देह के संबंधों के चक्रों में, कर्म और कर्म के फल के चक्रों में, पाप और पुण्य के चक्रों में और सुख-दु:ख के चक्रों में आती हैं । लेकिन परमात्मा इन सभी चक्रों से ऊपर है । सर्व बंधनों से मुक्त है ।

4. सर्वज्ञ

चौथी कसौटी है कि परमात्मा सर्वज्ञ है । सर्वज्ञ का अर्थ है कि वे सब कुछ जानते हैं, ज्ञाता है । जिसके पास संसार के आदि-मध्य-अंत का ज्ञान है, उन्हें त्रिकालदर्शी कहते हैं । जिनके पास तीनों लोकों का ज्ञान है, उन्हें त्रिलोकीनाथ कहते हैं । वे मनुष्य को भी ज्ञान का तीसरा नेत्र प्रदान करते हैं इसलिए उन्हें त्रिनेत्री कहते हैं और वे ब्रह्मा, विष्णु और महेश के भी रचयिता हैं इसलिए उन्हें त्रिमूर्ति कहते हैं । अंग्रेजी भाषा में ‘गॉड ‘ GOD शब्द में तीन अक्षर होते हैं । ‘G’ से जनरेटर अर्थात्‌ स्थापक,‘O’ से ऑप्रेटर अर्थात्‌ पालक,‘D’से डिस्ट्रॉयर अर्थात संहारक है । इस तरह वे – त्रिकालदर्शी, त्रिलोकीनाथ, त्रिनेत्री और त्रिमूर्ति हैं ।

5. सर्व गुणों और शक्तियों में अनंत

पाँचवी कसौटी है कि परमात्मा सर्व गुणों में अनंत हो । सर्वशक्तिमान हो । जिनके लिये मां शारदा ने कहा है कि सागर की स्याही बनाओ, जंगलों की कलम बनाओ, धरती का कागज बनाओ और स्वमं माँ सरस्वती परमात्मा की महिमा लिखे तो भी परमात्मा की अपार महिमा है जो लिखी नहीं जा सकती । इतनी अनंत महिमा जिसकी है उसको कहेंगे परमात्मा । संक्षेप में परमात्मा को परखने की कसोटी के पाँच बिंदु हैं –1) सर्व धर्म मान्य, 2) सर्वोच्च शक्ति, 3) सर्वोपरि, 4) सर्वज्ञ और 5) सर्व गुणों में अनंत ।

परमात्मा का संपूर्ण परिचयइस्लाम धर्म

इस्लाम धर्म में

भारत से बाहर, इस्लाम धर्म में मूर्ति पूजा नहीं है । परंतु एक समय था जब मक्का में तीन सौ साठ देवी-देवताओं की मूर्तियाँ होती थी । हरेक के अपने-अपने इष्ट होते थे। लेकिन जब मोहम्मद पैगंबर साहब आये तब उन्होंने कहा कि अल्लाह एक है । लोगों ने मोहम्मद पैगंबर साहब से कहा कि क्या यह हमारे इष्ट नहीं है? मोहम्मद पैगंबर साहब ने बस एक ही बात कही कि अल्लाह एक है, इस बात से लोग उन पर काफी नाराज हुए और उन्होंने मोहम्मद पैगंबर साहब को मदीना भेज दिया । परंतु फिर भी यह विचार-धारा चलती रही और काफी लोग इस बात से सहमत होने लगे कि अल्लाह एक है । जब काफी संख्या में लोग इस बात को स्वीकार करने लगे, तब वह सब पुनः मक्का आये और उस समय काफी लड़ाई-झगड़ा, खून-खराबा हुआ, कहा जाता है कि तब एक आकाशवाणी हुई की आप लड़ाई झगड़ा मत करो, मुझे इस स्वरूप में याद करो और ऊपर से एक पवित्र पत्थर मक्का में गिरा, जहां उसको स्थापित कर दिया गया और उसी समय वह तीन सौ साठ देवी-देवताओं की मूर्तियों को नष्ट कर दिया गया । उस पवित्र पत्थर को काबा का पवित्र पत्थर कहते हैं, जो निराकार है, जिसकी कोई साकारआकृति नहीं है । दुनिया का हर मुसलमान यह मानता है कि जीवन में कम से कम एक बार इस पवित्र पत्थर का दर्शन अवश्य करना चाहिये, तभी जीवन सफल होगा इसलिये इसकी हज-यात्राएं निकलती हैं । हज में भी सभी नहीं जा सकते उनके लिए बहुत सख्त नियम हैं और जो उसका पालन करता है वही हज के लिए जा सकता है और सारा गांव उनको बड़े सम्मान और इज्जत के साथ विदाई देता है । वहाँ जाने के बाद हर मुसलमान अपने पापों का प्रायश्चित करता है, फिर शैतान को पत्थर मारते हैं, उस पवित्र पत्थर को चूमते हैं और उसकी सात बार परिक्रमा करते हैं । यह परिक्रमा सिर्फ मक्का में होती है और किसी मस्जिद में नहीं होती और अंत में एक वाक्य कहते हैं - जिसके बिना उसकी हज यात्रा को संपूर्ण नहीं माना जाता । वह यादगार वाक्य है –‘हे परवरदिगार, नूरे इलाही, मेरा हज कबूल हो ।‘ तब उनका हज कबूल होता है । परवरदिगार परमेश्वर के लिए कहा, नूरे इलाही अर्थात अल्लाह नूर है, नूर माना तेज या प्रकाश । जिसको हिंदुओं ने ज्योतिर्लिंगम्‌ कहा, उन्होंने उसे नूर कहा इस तरह दोनों मतों में समानता हो गई।


ईसाई धर्म में

ईसाई धर्म में भी मूर्तिपूजा को स्वीकार नहीं किया जाता लेकिन हजरत मूसा जब पर्वत पर गए थे वहां उनको दो पत्थरों पर परमात्मा के दस आदेश ( the ten commandments) मिले थे | उस समय हजरत मूसा ने भी एक दिव्य प्रकाश का साक्षात्कार किया था । जिसको देखकर के हजरत मूसा ने कहा - येहोवा अर्थात्‌ दी सुप्रीम लाइट the Supreme Light | क्राइस्ट Christ ने कभी अपने आपको गॉड God नहीं कहा । उन्होंने यही कहा- गॉड इज लाइट, आई एम द सन ऑफ गॉड God is Light, I am the son of God - परमात्मा परम प्रकाश है - मैं परमात्मा का पैगंबर हूं | और इसलिये जब उनको क्रॉस पर चढ़ा रहे थे तब उन्होंने अंतिम प्रार्थना की कि - हे प्रभु आप इन्हें क्षमा कर देना क्योंकि इन्हें पता नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं Oh God Please forgive them as they do not know what they are doing | आज भी वेटिकन Vetican में परम प्रकाश का एक प्रतीक चिन्ह रखा है और हर चर्च में मोमबत्ती जलाते हैं । उसमें भी एक बड़ी मोमबत्ती होती है बाकी सब छोटी-छोटी मोमबत्तियां होती हैं । बड़ी मोमबत्ती परमात्मा का प्रतीक है, छोटी मोमबत्तियां आत्माओं का प्रतीक है । स्पष्ट है कि परमात्मा के स्वरुप के विषय में इसाईयों ने प्रकाश या लाइट कहा, मुसलमानों ने नूर कहा, हिंदुओं ने ज्योति कहा, बात तो एक ही है ।


सिख धर्म

गुरु नानकदेव जी ने जितनी स्पष्ट शब्दों में परमात्मा की महिमा की है, उतनी स्पष्ट व्याख्या और किसी ने नहीं की है–‘एक ओंकार, सतनाम, कर्तापुरुष, निरभय, निर्वेर, अकाल मूरत, अजूनि....... ‘ जो किसी योनि में नहीं जाते, वही एक निराकार है, निर्वेर है, उनका नाम ही सत्य है, जिनको काल कभी नहीं खा सकता इसलिए तो गुरु गोविंद सिंह जी ने शिव की महिमा गाई है ‘देह शिवा वर मोहे ....... । ‘


जैन धर्म

जैन धर्म में 24 तीर्थकर हुए हैं और उन सभी को ध्यान मुद्रा में दिखाया गया है । वह सभी किसके ध्यान में मगन है? महावीर स्वामी जी ने भी किसकी तपस्या की है? उनसे श्रेष्ठ कौन था ? महावीर स्वामी ने कभी अपने आप को भगवान नहीं कहा । आज भी जैनी लोग जब दिवाली के दिन महावीर स्वामी का निर्वाणदिन मनाते हैं तो अपनी प्रार्थना में यही कहते हैं - कि आपने जो शिवधाम को प्राप्त किया वही गति हमें भी प्राप्त हो । ये कौन सा शिवधाम था? यह शिव कौन है ? उनके लिए जैन लोग कहते हैं - सिद्धशिलापति । सिद्धशिलापति अर्थात जो सर्वश्रेष्ठ है, और उस श्रेष्ठ गति को प्राप्त करने के लिए तीन बातें बताते हैं ज्ञान, दर्शन और चरित्र । भावार्थ ज्ञान होना आवश्यक है, चरित्र श्रेष्ठ और दर्शनीय मूर्त होना चाहिए ।

बौद्ध धर्म

महात्मा बुद्ध ने कभी मूर्ति पूजा के लिए किसी को प्रेरित नहीं किया । वह स्वयं ध्यान मुद्रा में है तो किसका ध्यान कर रहे हैं ? किसकी तपस्या कर रहे हैं ? आज भी जापान चले जायें तो वहां शिन्टँइजम संप्रदाय वाले – तीन फुट की ऊंचाई पर स्थापित किया हुआ और तीन फुट दूर एक थाली के अंदर लाल पत्थर रखते हैं । इसे कहते हैं करनी का पवित्र पत्थर । बिल्कुल निराकार शिवलिंग के आकार का है - और उसको उन्होंने कहा - चिनकुनशेकी। चिनकुनशेकी का मतलब है जो शांति का दाता है । जिसका ध्यान करने से हमे शांति मिलती है इसलिए वह उसके सामने बैठकर मेडिटेशन करते हैं ।

पारसी धर्म

पारसी लोग जब ईरान से भारत आये थे तो जलती हुई ज्योति को साथ ले आए थे और उनके मंदिर को अगियारी कहा जाता है जहां यह अखंड ज्योत जलती रहती है और आज भी जब उनकी कोई नई अगियारी स्थापित होती है तो जलती हुई ज्योत का एक टुकड़ा ले जाकर वहां स्थापित करते हैं । इसलिए उनकी अगियारी को फायर टेम्पल (Fire Temple) कहते हैं |

परमपिता परमात्मा

इस तरह परमपिता परमात्मा का सर्व धर्म मान्य स्वरुप है निराकार ज्योतिस्वरूप, प्रकाश, ज्योत, नूर, लाइट आदि । लोगों ने इसे अलग-अलग नामों से जाना, पहचाना । किसी ने गॉड, अल्लाह, ईश्वर, प्रभु, मालिक,सिद्धशिलापति,चिनकुनशेकी या वाहेगुरु कहा । जिस तरह एक व्यक्ति को कोई अलग-अलग संबोधन करके बुलाता चाचा, मामा, ताऊ, भाई, पिताजी कहे लेकिन वह व्यक्ति का स्वरूप तो एक ही रहेगा । इसी प्रकार परमात्मा को बेशक अलग-अलग नाम से संबोधित किया जाए लेकिन उनका स्वरूप तो सभी धर्मों में एक ही दिखाया है, वो निराकार ज्योति स्वरूप परम प्रकाश पुंज जो सर्वधर्ममान्य है, जो देवों का भी देव महादेव है ।


राजयोग मेडिटेशन क्या है? (What is Rajyoga Meditation)

"राजयोग मेडिटेशन" स्वयं परमात्मा के द्वारा सिखाया हुआ योग है। जिससे मनुष्य राजा या मालिक बन सकता है इसीलिए इसे राजयोग मेडिटेशन (Rajyoga Meditation) कहाँ जाता है। राजा यानि अपनी कर्मेन्द्रियों को चलाने वाला। अपने मन-बुद्धि का मालिक।

राजयोग माना सम्बंध, कनेक्शन। आत्मा का परमात्मा से कनेक्शन जोड़ना ही राजयोग है।

        हम हमारे दैनिक जीवन में किसी न किसी को याद करते है। हम जिसे भी याद करते है उसके मन के साथ हमारे मन का कनेक्शन जुड़ जाता है।

        किसी को याद करने के लिए हम कोई वस्तु या कोई व्यक्ति की छबी को हम हमारे मन में चित्र के रूप में देखते है और वह याद सहज होती है इसी तरह परमात्मा को याद करने के लिए, पहले तो हमें अपने आप की आत्मिक स्वरूप की छबी को हमारे मन में लाना है। जैसे मैं आत्मा ज्योतिर्बिंदु हूँ तो वैसी प्रकाश की सूक्ष्म बिंदुरुप छबी को हमारे मन में लाना है फिर परमात्मा को बुद्धि रूपी आंखों से परमधाम में ज्योतिर्बिंदु के रुप में देखते हुए याद करें। फ़िर याद के साथ महसूस करें कि परमात्मा एक लाईट का गोला है और दिव्य प्रकाश की किरणें परमात्मा से निकल रही है और मुझ आत्मा में आकर समाती जा रही है। जैसे ही हमारा मन परमधाम में परमात्मा से जुड़ जाता है हमें शान्ति की अनुभूति होने लगेगी, हमारा मन शांत हो जायेगा और आत्मा में शक्तियाँ भरने लगेगी।

        जब हम यह अभ्यास लगातार करते रहेंगे तो यह याद सहज हो जाएगी और हमारा परमात्मा से मिलन भी सहज ही होता रहेगा। हररोज के अभ्यास से हमें नई नई अनुभूतियाँ भी होती रहेंगी, हमें लगने लगेगा कि परमात्मा मेरी हर बात सुन रहा है और वह मुझे मेरे सवालो का उत्तर भी दे रहा है।

        इसी अभ्यास को करने से ही मनुष्यात्माओं के जन्मो-जन्मांतर के पाप नष्ट होंगे और आत्मा जो आज पतित और कमजोर बन चुकि है वह फ़िर से पावन और शक्तिशाली बन जायेंगी। जब आत्मा पावन होती है तो उसे संसार की सारी प्राप्तियाँ सहज ही होती है। राजयोग मेडिटेशन से हमारे जीवन की कई सारी मुश्केलियों का समाधान मिल जाता है।

तो आज हमने यहाँ पर जाना कि राजयोग क्या है और परमात्मा को सही अर्थ में कैसे याद किया जाये।


हमें राजयोग मेडिटेशन सीखने की आवश्यकता क्यों है? (Why we need to Learn Rajyoga Meditation)

मनुष्य समझता है कि मेडिटेशन में अपने विचारों को रोकना होता है परंतु एसे कोई विचारों को रोक नहीं सकता। जैसे अगर पानी के प्रवाह को रोकने की कोशीश करेंगे तो वह दूसरी दिशा में बहने लगेगा। अगर हम अपने विचारों को रोकने की कोशीश करेंगे तो हम ओर ही उलझ जायेंगे। ध्यान में हमें जरूरत है अपने विचारों को सही दिशा देने की। जब कहते ही है ध्यान लगाना तो किसी के ऊपर तो हमें ध्यान लगाना होगा परंतु किसके ऊपर? और कैसे ध्यान लगाए वह पता नहीं है इसीलिए जरूरत है "राजयोग मेडिटेशन कोर्ष" सीखने की।


राजयोग - सबसे अच्छी ध्यान तकनीक (Rajayog - Best Meditation Techniques)

राजयोग मेडिटेशन ध्यान की सबसे उत्तम विधि है क्योंकि यह ध्यान हम कोई भी स्थान पर, कोई भी समय पर कर सकते है। यह ध्यान आंखो को खुली रखते हुए, चलते-फिरते, कोई भी कर्म करते हुए कर सकते है। राजयोग मेडिटेशन करने के लिए हमें सिर्फ जरूरत है तो आध्यात्मिक ज्ञान (Spiritual Knowledge) की। इसमें हमें किसी भी प्रकार का मंत्र-जाप का उच्चारण करना नहीं है। हम मेडिटेशन करते ही है शांति के लिए, तनाव मुक्त होने के लिए। वास्तव में परमात्मा की याद ही मेडिटेशन है क्योंकि परमात्मा की याद से ही हम शांति का अनुभव कर सकते है परंतु जरूरत है उसे विधि पूर्वक करने की यानि "आत्मा" और "परमात्मा" के यथार्थ ज्ञान को समझ ने के बाद सच्ची रीति से परमात्मा को याद करने की। इसमें दृश्य (Visualization) का बहुत महत्व है इसीलिए हमें कोर्ष को अच्छी रीति से समझना है। आत्मा और परमात्मा का मिलन ही राजयोग हैं। 


राजयोग मेडिटेशन में क्या करें? (What to do in Rajyoga Meditation)

ध्यान यानि कनेक्शन। हमारा परमपिता परमात्मा के साथ कनेक्शन जोड़ना।

क्यों परमात्मा से कनेक्शन?

तो जैसे कि हमें कुछ पाने के लिए उसके स्त्रोत से वह चीज लेनी पड़ती है। अगर हमें पानी की जरूरत हो तो पानी के स्त्रोत (तालाब, नदी, कुए) से हमें पानी मिलता है और उसे घर तक लाने के लिए पाइप से कनेक्शन जोड़ना पड़ता है। अगर हमारे मोबाईल की बैटरी लॉ हो जाए तो हमें उसे चार्जर से उसके स्त्रोत पावर हाउस के साथ कनेक्शन जोड़कर विद्युत ऊर्जा देकर चार्ज करना पड़ता है।

वैसे ही परमात्मा शांति का सागर, सुख का सागर, शक्ति, पवित्रता, प्रेम, आनंद का सागर है यानि शक्तियों का स्त्रोत (पावर हाउस) है और "राजयोग मेडिटेशन" एक माध्यम है परमात्मा से जुड़ने का। तो हमें सुख, शांति, प्रेम आदि को प्राप्त करने के लिए परमात्मा के साथ हमारे मन-बुद्धि को जोड़ना है और एक यही मार्ग है जीवन को सुख-शांति से सम्पन्न और सम्पूर्ण बनाने का।

राजयोग एक विधि है जिसके द्वारा हम अपने वास्तविक स्वरूप या कहे आत्मिक स्वरूप में स्थित होकर यानि अपने को आत्मा समझ अपने प्यारे परमपिता परमात्मा (भगवान) को उनके वास्तविक स्वरूप (ज्योतिर्बिंदु रूप) में याद करते है और उनकी यादों में हमारे मन-बुद्धि को स्थिर करते हैं। परमात्मा के साथ जुड़ने से या उनकी याद से मनुष्यात्माओं के कई जन्मों के पाप विनाश होते है परंतु परमात्मा से जुड़ने की भी एक विधि (रीत) है। उस रीति से अगर हम परमात्मा से ध्यान लगाते है तो हम पवित्र बन मुक्ति और जीवनमुक्ति को प्राप्त कर सकते है।

मनुष्य परमात्मा से सुख-शांति मांगता है की "है भगवान मुझे सुख दो, शांति दो" परंतु राजयोग में हमें परमात्मा से मांगना नहीं है उनसे लेना है यानि राजयोग के माध्यम से हमें परमात्मा की शक्तियों को महसूस करना है, उसे अपने भीतर समाना है यानि जमा करना हैं।


राजयोग मेडिटेशन के चार आधार जिसका अनुशासन करना बहुत ही महत्वपूर्ण है।

1. शुद्ध भोजन :

एक कहावत है - "जैसा अन्न वैसा मन"। शुद्ध भोजन लेने से मनुष्य का तन और मन स्वस्थ रहता है इसीलिए उसे योग में शारीरिक कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता।

2. सत्संग : 

सत् यानि सत्य (परमात्मा) का संग करने से मनुष्य के मन में आने वाले बुरे विचार खत्म हो जाते है और वह सहज ही अपने मन को परमात्मा के साथ जोड़ सकता है। इसीलिए सत्संग का बहुत ही महत्व है। 

3. दिव्य गुणों की धारणा :

मनुष्य को उच्च दिव्य गुणों की धारणा करनी चाहिए जिससे उसे परमात्मा के द्वारा प्राप्त होने वाली शक्तियों का अनुभव होता है।

4. ब्रह्मचर्य का पालन :

ब्रह्मचर्य की पालना करने से मनुष्य काम, क्रोध, लोभ और अहंकार आदि विकारो पर जीत पा सकता है और यही "राजयोग मेडिटेशन" का लक्ष्य है कि मनुष्य अपने विकारो को विनाश कर, देवताई गुणों को धारण कर, पतित से पावन बन सम्पूर्ण सुख की प्राप्ति करें।


ध्यान के लाभ (Benifits of Meditation)

राजयोग मेडिटेशन करने से कई सारे लाभ हो सकते है परंतु इसे विधि पूर्वक करने के लिए सबसे पहले जरूरत है कि हम "Rajyoga Meditation Course" को अच्छी रीति समझ ले।

हररोज के अभ्यास से मनुष्यात्मा की "आंतरिक शक्ति" (Inner Power) और "मन की शक्ति" (Mamory Power) बढ़ती जाती है। जिससे वह उसके जीवन में कई बदलाव अनुभव करता है।

मनुष्य कई बीमारियों से मुक्त हो सम्पूर्ण निरोगी बन सकता है।

मनुष्य सारी चिंताओं से मुक्त होकर सम्पूर्ण सुख की प्राप्ति कर सकता है।

मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से मुक्ति पा सकता है जो उसके दु:ख एवं बंधन के कारण है।

राजयोग से मनुष्य आत्माओं के पापो का नाश होता है।

मनुष्यात्मा परमात्मा से मिलन का अनुभव क